आजम खान की जेल से रिहाई: मुसलमानों के ‘मसीहा’ की छवि या राजनीतिक प्यादे की सच्चाई?

आजम खान की जेल से रिहाई: मुसलमानों के ‘मसीहा’ की छवि या राजनीतिक प्यादे की सच्चाई?

लखनऊ। 18 अक्टूबर 2025 (परख न्यूज सर्विस) समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान की हालिया जेल से रिहाई ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। मीडिया में उन्हें मुसलमानों के ‘मसीहा’ के रूप में पेश किया जा रहा है, मानो उनकी वापसी से समुदाय के बेहतर दिन लौट आएंगे। लेकिन कई पुरानी घटनाओं की समीक्षा करने पर सवाल उठता है कि क्या आजम खान वाकई मुस्लिम समुदाय के नेता हैं या सिर्फ एक राजनीतिक प्यादा? इतिहास की कुछ घटनाओं को याद करते हुए हम इसकी पड़ताल करते हैं।

1987-88 के आसपास की बात है, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बाबरी मस्जिद विवाद को जोर-शोर से हवा दी हुई थी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव उभरते हुए नेता थे, हालांकि वे अभी मुख्यमंत्री नहीं बने थे, लेकिन पद की दौड़ में सबसे आगे थे। उन्होंने महसूस किया कि बाबरी मस्जिद विवाद मुसलमानों के वोटों को अपनी ओर खींचने का सुनहरा मौका है। इसके लिए उन्होंने आजम खान को आगे किया, जो की उग्र हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए मुस्लिम समुदाय का उग्र चेहरा बने। भाजपा नेताओं और आजम खान, दोनों ने ही जहरीली भाषा का खुलकर इस्तेमाल किया।

नतीजा 1989 में सामने आया, जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री। इसी बीच बाबरी मस्जिद आंदोलन जोर पकड़ता रहा। मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बन चुके थे और भाजपा के कारसेवक तब की
मस्जिद तोड़ने के लिए बार-बार अयोध्या में जुटते थे। इस दौरान भाजपा नेताओं और आजम खान के बयानों में उग्रता बढ़ती गई। 1990 में, कारसेवकों का बड़ा जत्था अयोध्या पहुंचा और तब की मस्जिद को बचाने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने गोली चलवाई, जिसमें कई कारसेवक भी मारे गए। इसके साथ ही इस घटना ने आंदोलन के पहले चरण को समाप्त कर दिया। तब की मस्जिद तो बच गई, लेकिन मुलायम सिंह की सरकार गिर गई। इसके बाद मुलायम सिंह ‘मुल्ला मुलायम’ के नाम से मुसलमानों के मसीहा बनकर उभरे और लंबी राजनीतिक पारी खेली। उनके पुत्र अखिलेश यादव को भी इस विरासत का फायदा मिला, और वे पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहे। इस पूरी प्रक्रिया में आजम खान के जहरीले बयानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। बदले में, मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक ‘जागीर’ से रामपुर का हिस्सा आजम खान को सौंप दिया। मुलायम और अखिलेश की सरकारों में आजम खान मंत्री भी रहे।
सत्ता की इस सफलता ने आजम खान को मदमस्त कर दिया। मुलायम सिंह को मुस्लिम वोटों की लगातार जरूरत थी, इसलिए उन्होंने आजम को बेलगाम छोड़ दिया। आजम ने इसका पूरा फायदा उठाया। जाति-धर्म की राजनीति में रामपुर से वे बिना कुछ खास किए चुने जाते रहे। उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को भी सांसद-विधायक बनवाया। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इसके लिए उन्होंने हर संभव तरीके अपनाए।

इसी दौर में आजम खान ने खुद को सर सैयद अहमद खान बनाने की कोशिश की।
सर सैयद अहमद खान (1817-1898) एक प्रमुख भारतीय मुस्लिम सुधारक, दार्शनिक, शिक्षाविद् और लेखक थे, जिन्होंने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा दिया। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के संस्थापक थे, जो पहले मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में शुरू हुआ। सर सैयद को आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक माना जाता है, जिन्होंने ब्रिटिश काल में मुस्लिम समुदाय को पश्चिमी शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया। उसी के हिसाब से आजम खान ने ‘जौहर यूनिवर्सिटी’ बनाई जो एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी है। इसका निर्माण आजम खान ने कथित तौर पर अपनी आने वाली पीढ़ियों को लाभ पहुंचाने के लिए थी, हालांकि इसे गरीब बच्चों को शिक्षित करने के नाम पर पेश किया गया। सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन किस्मत ने पलटा मारा। भाजपा सत्ता में आई, मुलायम सिंह का निधन हो गया, और बाबरी बहुत पहले ढह चुकी थी—जिसकी ‘कमाई’ कई लोगों ने भुनाई, आजम खान भी उनमें से एक है । नए शासन में आजम खान जैसे उग्र मुस्लिम चेहरे को निशाना बनाया गया। सत्ता में रहते हुए किए गए उनके कथित गलत काम सामने आए। सवाल यह है कि समाजवादी पार्टी में कई बड़े मुस्लिम नेता हैं, तो गाज सिर्फ आजम खान पर ही क्यों गिरी? जाहिर है, उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया सबूत मौजूद थे।
अब आजम खान जेल से बाहर हैं। मुलायम सिंह नहीं हैं, और उनकी विरासत में मुस्लिम नेता अब अखिलेश यादव हैं। आजम की जेल यात्रा के दौरान न मुस्लिम नेताओं में और न ही आम मुसलमानों में कोई बड़ा आंदोलन हुआ। यह दर्शाता है कि वे मुसलमानों के वास्तविक नेता नहीं हैं। आजम खान मुलायम सिंह के एक प्यादे भर थे, जिन्हें उदार मुलायम ने जरूरत से ज्यादा सम्मान दिया,कुछ वैसा ही जैसे एक समय अमर सिंह थे। अगर आजम खान इस सच्चाई को समझ लें, तो उनका बुढ़ापा शांतिपूर्ण बीतेगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अनुभवी आजम इतनी बात तो समझते ही होंगे।

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